Saturday, February 28, 2015

किसान स्मारक


                                      आवश्यकता किसान स्मारक की
 उमेश तिवारी ‘विश्वास’
आपको याद होगा कि एक किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री को उनके बेटे वगैरा भूल गए थे. भला हो वकीलों का जिन्होंने इसी दौरान घर बदलने को मज़बूर बेटे को  पितृ पक्ष की याद दिलाई. सच्ची, अगर पिता का कोई स्मारक आदि होता तो क्या उन्हें कोई बेटा भूल सकता था ? बेटे और समर्थकों ने साल में एक-आध बार, चंदे-वन्दे के लिए ही सही, स्मृति स्थल पर पत्रकार वार्ता अवश्य की होती.
जब पुत्र को देश की तरक्की में पिता के योगदान की भी सुध आयी तो उसने अपने उसी देश की सरकार से अपने लिए कोई मंत्रालय-वंत्रालय मांगने के बजाय दिल्ली की एक सड़क के किनारे सरकारी क्वार्टर मांगा. जिसके आंगन में बस एक चबूतरा सा बन जाए जहाँ सरसों के तेल का दिया जलता रहे. वहीँ एक कोने में पिता की फोटो लगाये बेटा भी पड़ा रहेगा. किसानी से टच बनाये रखने के लिए स्मारक के बगल की फुलवारी के साथ हलधर किसान की मूर्ति लगवा लेगा.
कई कृषि प्रधान देशों के नेता जब दिल्ली आते हैं तो भारत के किसानों के प्रति अपना श्रद्धा भाव बताने को, भारी ट्रैफिक में, राजघाट के निकट किसान घाट जाना पड़ता है. अगर औरंगज़ेब रोड पर स्मारक बन जाये तो वो लुटियन ज़ोन में ही झटपट फूल-पत्ती चढ़ा आयेंगे. टी वी वालों के लिए भी नज़दीक पड़ेगा. इतना टाइम किसके पास होता है आजकल.
किसान स्मारक के अधिकांश समर्थक, बगल में यू पी के रहने वाले हैं. वो कई बार दिल्ली आते हैं. स्मारक नहीं होने की वजह से गाजियाबाद सीमा पर मत्था टेक कर वापस हो लेते हैं. इससे दिल्ली के किसान संस्कारों में कोई वृद्धि नहीं हो पाती. यही कारण है कि महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक के किसान भी दिल्ली नहीं आते और अपने इस जन्म में किसान नेताओं को श्रद्धासुमन अर्पित किये बिना ही कर्ज़गति को प्राप्त हो रहे हैं. यह दिवंगत नेता के सपनों के प्रति अन्याय है.
यूपी के किसान अपने खाली समय में दिल्ली का पानी बंद करके किसान स्मारक बनाने की मांग कर रहे हैं. उत्तराखंड में अगर किसान होते तो वो कम से कम उत्तराखंड तो बंद कर ही देते. दक्षिण के किसान समझ रहे हैं कि पानी-बिजली को शायद उत्तर भारत में स्मारक कहते होंगे, लेकिन वो दिल्ली का बंद करें, तो क्या?
आज की लोकप्रिय सरकार सबके लिए अच्छे दिनों का वादा करके आयी है. अपने वादे पर ईमानदारी से काम करते हुए सरकार को व्यापारी नेता, कर्मचारी नेता, दरबारी नेता, भिखारी नेता आदि बन सकने की संभावनाओं से भरे व्यक्तित्वों के लिए स्मारक स्थलों का आरक्षण कर देना चाहिए. इसका एक फायदा ये होगा कि नयी कैटेगरी के किसी नेता जैसे; ‘झपटमार मंडल अध्यक्ष’ और उनके बच्चों को पहले से पता रहेगा कि उनका स्मारक नहीं बन सकता. वो अपने समर्थकों के साथ किसी शोध संस्थान वंस्थान के लिए ट्राई कर सकेंगे. दूसरा फायदा ये रहेगा कि आरक्षित श्रेणी स्मारकों के लाभार्थी ग्रुप, आपसी गुटबाजी के शिकार हो जाएंगे जिससे मुख्य राजनीतिक दलों को उनके अन्दर घुस कर तोड़-फोड़ करने का अवसर मिलेगा.  
असल में ‘स्मारक समस्या’ सिर्फ किसानों तक सीमित नहीं है. हमारे देश में कई किसम के प्राणी, समुदाय, संगठन आदि हैं, जिनका स्मारक बनाना बहुत जरुरी है. वो खुद अपने स्मारक की मांग नहीं कर सकते इसलिए पत्रकार टाइप लोगों का फ़र्ज़ है कि वो ऐसे मुद्दे उठाते रहें जिससे ‘स्मारक जागरूकता’ बनी रहे. हो सकता है इस चक्कर में कोई ‘पत्रकारिता घाट’ हाथ लग जाय.




Saturday, February 21, 2015

सबै भूमि गोपाल की

          सबै भूमि गोपाल की  
                           उमेश तिवारी ‘विश्वास’

यार प्रजा कभी-कभी तुम्हारी नादानी पर मुझे बड़ा गुस्सा आता है....! तुमने कभी सोचा जो गैस-बिजली, तेल-पानी तुमको मिलती है उसका थोड़ा मंहगा होने का क्या कारण है ? प्यारी, चुनावों में खर्चा करके जो तुम्हारी लोकप्रिय सरकार बनवाते हैं उनका भी कुछ हक बनता है. सिर्फ़ इसीलिए सरकार तुमको सीधे-सीधे अंतर्राष्ट्रीय दामों में पेट्रोल, डीजल या गैस मुहैय्या नहीं करवा सकती. कोयले की खानें काम दाम में इसलिए दी जाती हैं ताकि तुमको बिजली सस्ती मिले. प्राकृतिक/अप्राकृतिक राष्ट्रीय संसाधनों के सुविचारित आबंटन को तुम लूट कह देती हो. यकीन रखो सारे उद्योग तुम्हारे हैं, उद्योगपति तुम्हारे साले हैं.

तुम भूल जाती हो कि जिसमें तुम जी रही हो या मर रही हो, वो तुम्हारा ही तंत्र है. प्रजातंत्र, जनतंत्र, लोकतंत्र. तुम इस कृषि प्रधान देश की प्रजा हो, जन हो. ये खेती चौपट होने का रोना बंद करो. लोकतंत्र की पैदाइश तुम्हारे ही खेत में हो रही है और अच्छी हो रही है. मोदी से लेकर विक्की तक सारे नेता तुम्हारे खेत की मुडेर पर दंड पेल रहे हैं, हर छोटी से छोटी प्रोग्रेस पर कड़ी नज़र बनाये हुए हैं. तुम कहोगी ये कैसी उलटबांसी है ? खेत तुम्हारा और निगरानी कर रहे हैं वो, जिनके पास करने को भतेरे काम पड़े हैं ? प्यारी ! वो अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप काम करते हैं. खेत तुम्हारा ज़रूर है, पर इसमें बीज बो दिए हैं उन्होंने. भविष्य के सभासदों, मेयरों, विधायकों, सांसदों की पौध रोप दी है राजनीतिक दलों ने. तुम्हारा होते हुए भी ये अब देश का खेत है. तुम्हारा फ़र्ज़ बनता है कि अपना तन, मन और धन लगा कर इस खेत के बिरवों-बेलों को बड़ा करो. उन्हें हृष्ट-पुष्ट, लम्बा-चौड़ा और चरित्रवान बनाओ. इसीमें तुम्हारी और तुम्हारे खेत/देश की भलाई है.
ऐसा भी नहीं है कि तुम्हारे खेत में स्थापित जनतंत्र की इस नर्सरी में विभिन्न प्रजाति के बीज बो कर वो सारी ज़िम्मेदारी तुम्हारे ऊपर लाद देंगे. वो कुछ अतिरिक्त सहयोग भी प्रदान करेंगे. वो तुम्हारे खेत में भिषोंण (बिजूखा) के रूप में प्रशासन की उपस्थिति सुनिश्चित करेंगे. जिसके भय से कमअक्ल प्रवासी/परप्रांतीय आतातायी पक्षी खेतों से दूर रहेंगे. सत्तासीन दल कुछ विशेष बेलों को खरपतवार के रूप में वर्गीकृत कर, उनका विस्तार रोकने को सी बी आइ नामके कीटनाशक का उपयोग करेंगे. समय-समय पर वो अपने क्षत्रपों के सहयोग से स्वयं तुम्हारे खेत की निराई-गुड़ाई करेंगे. जो पौधे अपेक्षित ग्रोथ न दिखा रहे हों या तुम्हारी शराफत के संस्कारों के प्रभाव में दूसरों की खाद चूस पाने का गुण विकसित न कर पायें और मरियल रह जाएँ, उनको कम्पोस्ट के गड्डे में डाल देंगे. ये कालांतर में पूरी तरह सड़-गल कर चुनावी खाद का निर्माण करेंगे.
तैयार होने पर कुछ पौधे देहरादून, दिल्ली आदि जैसी राजधानियों की उर्वरा क्यारियों में शिफ्ट कर दिए जायेंगे. वहां विभिन्न क्षेत्रों/प्रान्तों से चुनकर लाये गए पौधों के संपर्क में आएंगे. उनसे टक्कर लेते हुए आगे निकल कर अपने प्रान्त का नाम रोशन करेंगे. ख़ूब फूलेंगे-फलेंगे.
फूल स्वाभाविक रूप से ज़मीन के ऊपर खिलेंगे और दसों दिशाओं में अपनी गंध फैलायेंगे. शुद्ध आचार, पवित्र व्यवहार की हवा में लहराते हुए दिलफेंक मक्खियों-भंवरों को अपनी-अपनी ओर खींचेंगे. उनके साथ मिलकर तुम्हारे विकास की खातिर पी पी पी मोड पर प्रोजेक्ट बनायेंगे. कुछ फूलों को इस मुकाम पर तुम्हारे सर का ताज बनाने के लिए चुन लिया जायेगा.
जहाँ तक तुम्हारे खेतों से उगकर इस श्रेष्ठ गति को प्राप्त पेड़-पौधों पर लगने वाले फलों का प्रश्न है, फल उनकी जड़ों में आलू-मूली की तरह फलते हैं. जिससे वो बुरी नज़रों, जिसमें तुम्हारी भी शामिल है, से बचे रहते हैं. भूमिगत होने से इनको राष्ट्रीय संसाधन की श्रेणी में रखा जाता है. मोटे तौर पर तुम्हारी तसल्ली के लिए, जितना मोटा पौधा उतने भारी फल.
जब इनकी खुदाई/तुड़ाई का अवसर आता है तो जिस विधि से स्पेक्ट्रम और कोयले की नीलामी की जाती है उसी पारदर्शिता के साथ ‘फल खाओ पट्टे’ दिए जाते हैं. मौका लगने पर ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की नीति और गठबंधन की दशा में मिलबांट कर उपभोग की नीति अपना ली जाती है. यह सब तुम्हारे और भारत के राष्ट्रपति के बिहाफ़ पर ही किया जाता है. वो तुमसे ज़्यादा पढ़े-लिखे हैं. सरकारी नीति में कुछ ऊँच-नीच होता तो वो इनको खुदा घर तक नहीं छोड़ते.  

खेत के मालिकाना हक को लेकर भी ज्यादा चूं-चपड़ करने का तुमको अब कोई फायदा नहीं होने वाला. भू अधिग्रहण का नया फार्मूला ‘सबै भूमि गोपाल की’ पर आधारित है. तुम गोपाल को नहीं जानते और तुमको ये भी पता नहीं कि सुदामा, बलदाऊ वगैरा से उसके क्या संबंध हैं. वो तुम्हारे खेत के गर्भ में तेल या गैस होने की संभावना जता देगा. फिर बैठे रहना मुआवज़े का चेक ले के. ये गोपाल जो भी हो, तुम्हारा कतई नहीं है.

(उमेश तिवारी ‘विश्वास’- उत्तराखंड में मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं. संपर्क- 09412419909)


               

Thursday, February 19, 2015

सिर्फ कूड़ा बुहारने से स्वच्छ नहीं बनेगा भारत.

सिर्फ  कूड़ा बुहारने से स्वच्छ नहीं बनेगा भारत  
उमेश तिवारी ‘विश्वास’
साल 2014 की एक बड़ी उपलब्धि ये है कि देशवासी झाड़ू उठा कर स्वच्छ भारत बनाने निकल पड़े हैं. ठीक भी है, कूड़ा सभी की ज़िम्मेदारी है. अमीर-ग़रीब, महिला-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, सब अपने स्तर पर कचरा तैयार करते हैं. वो चाहें, तब भी कूड़े का उत्पादन बंद नहीं कर सकते. इसी तरह व्यक्तिगत स्तर पर सफ़ाई बरतना भी एक आदत है. ये आदत अगर व्यक्तित्व में शामिल है तो अपने घर के अलावा सार्वजनिक स्थलों पर भी आपके गंदगी करने के चांसेस कम हैं. दुर्भाग्य से आज भी बड़ी संख्या में हमारे भाई-बहन अपनी देहरी से बाहर के भारत को अंग्रेज़ों का समझते हैं. इस दृष्टिकोण के मद्देनज़र, स्वच्छता की मुहिम में ‘सबका’ शामिल होना बहुत आवश्यक है. सरकार इसे अपने कार्यक्रम की तरह चलाना चाहे तो रस्म अदायगी या फोटो खिंचवाई के बजाय पल्स पोलियो अभियान सरीखी संजीदगी की ज़रूरत होगी.
कूड़े को बुहारने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उसे ठिकाने लगाना. जिन गाँव/कस्बों/ शहरों को हम साफ़ देखना चाहते हैं, वहां आम तौर पर स्वागत ही कूड़े के पहाड़ों या खुले में किये गए मल-मूत्र के ढेरों से होता है. हालाँकि डंपिंग स्थलों की परेशानी अमेरिका जैसे देश भी झेलते हैं. कचरे के विशाल लैंडफिल उनकी बड़ी समस्या हैं, लेकिन उनकी  परेशानी का बड़ा सबब वो प्लास्टिक है जिसे रिसाइकल करने की तकनीक दुनियाँ में किसी देश के पास नहीं है. हमारा कचरा उससे कहीं ज़्यादा खतरनाक इसलिए है कि इसमें वो सब भी मिला हुआ है जिसके बारे में हमें थोड़ा बहुत या बिलकुल ज्ञान नहीं है.
कूड़े को उसके अंजाम तक पहुँचाने के लिए श्रोत पर उसकी छंटाई पहली शर्त है. फैक्ट्रियों, अस्पतालों और विकीरण वाले कूड़े को ख़तरनाक मानते हुए यदि  उसका यथोचित/विशिष्ट प्रबंधन कर लिया जाये तो शेष कूड़ा, गीले और सूखे कचरे के दो संवर्गों में श्रोत पर ही अलग-अलग उठाया जा सकता है. इसके बाद की प्रक्रिया ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की सामान्य तकनीकों से पूरी की जा सकती है. इस स्तर पर  रीसाइक्लिंग प्लांट बनाने और कूड़ा ढुलाई आदि की व्यवस्था को कुशलता से चलाने की ज़िम्मेदारी स्थानीय निकायों की होगी. इसके लिए दरिद्रता झेल रहे निकायों को आवश्यक सरकारी मदद देनी होगी.
हम साफ़-सुथरे कस्बों/शहरों का सपना देख रहे हैं तो हमें ये भी जान लेना चाहिए कि उन्हें गन्दा और भद्दा बनाने में सिर्फ उस कचरे की भूमिका नहीं है जिसे हम झाड़ू या फावड़े-बेलचे से साफ़ कर सकते हैं. अपने कस्बे के आकाश पर निगाह डालें. रौशनी मानो बिजली, टेलीफ़ोन, केबल टी वी के तारों से छन कर हम तक आती है. कुछ घरों को बिजली देनी हो तो नज़दीकी खम्भे से कितनी ही दूरी तक तार खींच दिए जाते हैं. नयी ज़मीन और आसमान पर भद्दे रेखाचित्र बना दिए जाते हैं. सेलफोनों के प्रकोप से लैंडलाइन फ़ोन अपनी उपादेयता लगभग खो चुके हैं लेकिन उनके खम्भों और तारों को हम विरासतन ढोये जा रहे हैं. केबल टी वी के तार अमरबेल की तरह हर ऊँची चीज़ को जकड़ लेते हैं. डी टी एच की उलटी छतरियां, छतों, दीवारों, मुडेरों पर आड़ी-तिरछी ठोक दी जाती हैं. पानी के निकास को बनी नालियों में पीने के पानी के नल ठूँस  दिए जाते हैं. सीवर लाइन डालने के लिए सड़कों को खोद कर अक्सर महीनों तक छोड़ दिया जाता है.  
दुकानें लपककर, गजों सड़क घेर लेती हैं. फिर उनमें सजे सामान को धूप-पानी से बचाने को तार्पुलिन से लेकर रंग-बिरंगी प्लास्टिक शीट्स की झांपें/छतें जुड़ जाती हैं. चोरों, उठाईगीरों के डर से दुकानदारों का निकट ही नित्यकर्म करना अपरिहार्य हो जाता है. उनको चाय, बीड़ी, गुटके की अबाधित पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गली के कोने को और संकरा  करते हुए एक खोखा उग आता है. ग्राहक भी इन सुविधाओं का भरपूर उपयोग करते हुए बची खुची भूमि पर थूकते हैं. जहाँ पेशाबघर दुर्लभ हों, वहां पीकदान विलासिता ही कही जाएगी. इतना ही नहीं, वास्तुकार के नक़्शे पर बनी वैध ईमारत का स्वामी, टीन की दुछत्ती बनवाने का लोभ संवरण नहीं कर पाता. बड़ी दुकान का मालिक अपनी दुकान के कोने पर गुटखा-सिगरेट या पीको-फॉल का खोमचा बनवा देता है. मंदिर के बगल में एक और छोटा मंदिर, वहां पानी का नल, स्कूटर कम साइकिल कम जूता स्टैंड और बाबाजी की कुटिया तक निर्मित हो जाती है. किसी भी नाप का फ्लेक्स बोर्ड कहीं भी जड़ दिया जाता है, चिमनियों पर पुते विज्ञापनों के बीच से लैंप पोस्ट की रोशनी बाहर आने को संघर्ष करती है...... जाने-अनजाने, अज्ञानतावश, स्वार्थवश अपनी जगहों के प्रति बरती गयी यही संवेदनहीनता स्वच्छ भारत की कल्पना पर ग्रहण की तरह है.            
झाड़ू की जद में आने वाले कूड़े का कुशल प्रबंधन नि:संदेह हमारे शहरों को काफ़ी हद तक साफ़ बना सकता है, लोगों को ओने-कोने की सड़ांध से मुक्ति दिला सकता है लेकिन जब तक अतिक्रमणों पर सख्ती से रोक और गंदगी फ़ैलाने पर जुर्माने का प्रावधान नहीं होगा, साफ़-सुथरे शहरों के देश का सपना हक़ीकत में बदलते कई पीढ़ियाँ लगा देगा.
(उमेश तिवारी ‘विश्वास’- उत्तराखंड में मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार और पर्यटन विशेषज्ञ हैं. लम्बे समय से स्वच्छता मिशन से जुड़े हैं. संपर्क- 09412419909)