आवश्यकता किसान स्मारक की
उमेश तिवारी ‘विश्वास’
आपको याद होगा कि एक
किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री को उनके बेटे वगैरा भूल गए थे. भला हो वकीलों का जिन्होंने इसी
दौरान घर बदलने को मज़बूर बेटे को पितृ
पक्ष की याद दिलाई. सच्ची, अगर पिता का कोई स्मारक आदि होता तो क्या उन्हें कोई
बेटा भूल सकता था ? बेटे और समर्थकों ने साल में एक-आध बार, चंदे-वन्दे के लिए ही
सही, स्मृति स्थल पर पत्रकार वार्ता अवश्य की होती.
जब पुत्र को देश की
तरक्की में पिता के योगदान की भी सुध आयी तो उसने अपने उसी देश की सरकार से अपने
लिए कोई मंत्रालय-वंत्रालय मांगने के बजाय दिल्ली की एक सड़क के किनारे सरकारी क्वार्टर
मांगा. जिसके आंगन में बस एक चबूतरा सा बन जाए जहाँ सरसों के तेल का दिया जलता रहे.
वहीँ एक कोने में पिता की फोटो लगाये बेटा भी पड़ा रहेगा. किसानी से टच बनाये रखने
के लिए स्मारक के बगल की फुलवारी के साथ हलधर किसान की मूर्ति लगवा लेगा.
कई कृषि प्रधान
देशों के नेता जब दिल्ली आते हैं तो भारत के किसानों के प्रति अपना श्रद्धा भाव
बताने को, भारी ट्रैफिक में, राजघाट के निकट किसान घाट जाना पड़ता है. अगर औरंगज़ेब
रोड पर स्मारक बन जाये तो वो लुटियन ज़ोन में ही झटपट फूल-पत्ती चढ़ा आयेंगे. टी वी
वालों के लिए भी नज़दीक पड़ेगा. इतना टाइम किसके पास होता है आजकल.
किसान स्मारक के
अधिकांश समर्थक, बगल में यू पी के रहने वाले हैं. वो कई बार दिल्ली आते हैं.
स्मारक नहीं होने की वजह से गाजियाबाद सीमा पर मत्था टेक कर वापस हो लेते हैं.
इससे दिल्ली के किसान संस्कारों में कोई वृद्धि नहीं हो पाती. यही कारण है कि
महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक के किसान भी दिल्ली नहीं आते और अपने इस जन्म में
किसान नेताओं को श्रद्धासुमन अर्पित किये बिना ही कर्ज़गति को प्राप्त हो रहे हैं.
यह दिवंगत नेता के सपनों के प्रति अन्याय है.
यूपी के किसान अपने
खाली समय में दिल्ली का पानी बंद करके किसान स्मारक बनाने की मांग कर रहे हैं. उत्तराखंड
में अगर किसान होते तो वो कम से कम उत्तराखंड तो बंद कर ही देते. दक्षिण के किसान समझ
रहे हैं कि पानी-बिजली को शायद उत्तर भारत में स्मारक कहते होंगे, लेकिन वो दिल्ली
का बंद करें, तो क्या?
आज की लोकप्रिय सरकार
सबके लिए अच्छे दिनों का वादा करके आयी है. अपने वादे पर ईमानदारी से काम करते हुए
सरकार को व्यापारी नेता, कर्मचारी नेता, दरबारी नेता, भिखारी नेता आदि बन सकने की
संभावनाओं से भरे व्यक्तित्वों के लिए स्मारक स्थलों का आरक्षण कर देना चाहिए.
इसका एक फायदा ये होगा कि नयी कैटेगरी के किसी नेता जैसे; ‘झपटमार मंडल अध्यक्ष’
और उनके बच्चों को पहले से पता रहेगा कि उनका स्मारक नहीं बन सकता. वो अपने
समर्थकों के साथ किसी शोध संस्थान वंस्थान के लिए ट्राई कर सकेंगे. दूसरा फायदा ये
रहेगा कि आरक्षित श्रेणी स्मारकों के लाभार्थी ग्रुप, आपसी गुटबाजी के शिकार हो
जाएंगे जिससे मुख्य राजनीतिक दलों को उनके अन्दर घुस कर तोड़-फोड़ करने का अवसर
मिलेगा.
असल में ‘स्मारक
समस्या’ सिर्फ किसानों तक सीमित नहीं है. हमारे देश में कई किसम के प्राणी,
समुदाय, संगठन आदि हैं, जिनका स्मारक बनाना बहुत जरुरी है. वो खुद अपने स्मारक की
मांग नहीं कर सकते इसलिए पत्रकार टाइप लोगों का फ़र्ज़ है कि वो ऐसे मुद्दे उठाते
रहें जिससे ‘स्मारक जागरूकता’ बनी रहे. हो सकता है इस चक्कर में कोई ‘पत्रकारिता
घाट’ हाथ लग जाय.