Saturday, February 2, 2019

मोदी विरोधी लामबंदी बदल देगी उत्तराखंड के चुनावी समीकरण

मोदी विरोधी लामबंदी बदल  देगी उत्तराखंड के चुनावी समीकरण
मोदी विरोध की एक धारा जो इस समय पूरे भारतवर्ष में अपना प्रभाव दिखा रही है उत्तराखंड भी उससे अछूता नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि उत्तराखंड के चुनावी समीकरणों पर इसका असर बड़े बदलाव के संकेत दे रहा है। हो सकता है इस बार उस एकता का सपना साकार हो जाये जो पिछले अठारह वर्षों में नहीं बन पायी। कुछ समय से उत्तराखंड के जल, जंगल, ज़मीनों से जुड़ी नीतियों के प्रति असंतोष के चलते जो तीव्र छटपटाहट देखी जा रही थी उसके फलस्वरूप ग़ैरभाजपा-ग़ैरकांग्रेस ताक़तों का यह संवाद अवश्यम्भावी लग रहा था। 

मालूम हो उत्तराखंड में पिछले अक्टूबर की 10 से 25 तारीख़ के मध्य एक जनसंवाद यात्रा का आयोजन किया गया जो कुमाऊँ में पंचेश्वर, चम्पावत से आरंभ होकर उत्तरकाशी, गढ़वाल में समाप्त हुई। जैसा कि नाम से ज़ाहिर है इस यात्रा में व्यापक जनसंपर्क के ज़रिये गैरसैण राजधानी को लेकर जनमत बनाने का प्रयास किया गया। साथ ही विवादास्पद पंचेश्वर बांध पर एक बड़े आंदोलन की आवश्यकता को भी यात्रा द्वारा रेखांकित करने का प्रयास किया गया। इन दो बड़े मुद्दों के अलावा राज्य बनने से अब तक 3000 प्राइमरी स्कूलों के बंद होने और उत्तराखंड सरकार के हालिया फ़ैसलों जिनमें 40 हाईस्कूल-इंटर कॉलेजों और गरीबों के लिए बनाए गए राजीव गांधी नवोदय विद्यालयों को बंद करने घोषणा समेत सरकारी अस्पतालों को निजी हाथों में देने के निर्णय केेे विरोध में समूचे यात्रा रूट पर एक बहस छेड़ी गई। यात्रा में भागीदार क्षत्रपों के हवाले से समाचार पत्रों में छपी ख़बरों पर यक़ीन करें तो आपसी एकजुटता बनाने की इच्छा व्यक्त की जा रही थी। अब इसे अमली जामा पहनाने को एक अवसर और एक आह्वान की ज़रूरत थी।

बागेश्वर का ऐतिहासिक उतरैणी मेला समूचे कूर्मांचल की चेतना का प्रतीक रहा है। 1921 में यहाँ मकर संक्रांति को अंग्रेजों द्वारा लादी गयी कुली-बेगार प्रथा का प्रतिकार करते हुए इसके रिकार्ड के रजिस्टरों को फाड़ कर सरयू-गोमती के संगम पर बहा दिया गया था। तब से आज तक बागेश्वर में सरयू के बगड़ से कई आंदोलनों के बिगुल फूँके गए हैं। इसी ऐतिहासिक स्थल पर इस बार ये मीटिंग करने का निर्णय लिया गया।
15 जनवरी की इस मीटिंग में उत्तराखंड में कार्य कर रही राज्य आन्दोलन की भागीदार लगभग सभी क्षेत्रीय ताकतें और वाम दलों से जुड़े अधिकांश संगठनों के प्रतिनिधि उपस्थित थे। उपरोक्त जनसँवाद यात्रा के दौरान निकल कर आये मुद्दों और दिसंबर में उत्तराखंड सरकार द्वारा प्रदेश की जमीनों पर लिए गए एक निर्णय के विरोध में अधिकांश जनप्रतिनिधि बहुत उद्वेलित नज़र आये। उनका मानना था कि भूमि ख़रीद की सीमा और भू-उपयोग संबंधी प्रावधानों को इस हद तक डाइल्यूट कर दिया गया है कि समूचे प्रदेश की ज़मीनों पर भू-माफ़िया को काबिज़ होने से कोई नहीं रोक सकता। लीडरों का कहना था कि सूबे की सरकार ने इन्वेस्टर्स समिट की आड़ में भू उपयोग बदलने से सम्बंधित धारा 143 और औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमि सीमा समाप्त करते हुए धारा 154 में नये उपबंध जोड़कर पहाड़ की बची-खुची कृषि भूमि को समाप्त करने की राह आसान कर दी है। इन ज़मीनों पर निर्माण के लिए नक़्शे पास करने को ज़िला विकास प्राधिकरणों को थोपना अपरिहार्य हो गया है। हद  यह है कि सरकार और तथाकथित निवेशकों के बीच सरकारी अधिकारियों को लायजन ऑफीसर के रूप में नियुक्त कर दिया है। विकास प्राधिकरणों की स्थापना से ग्राम पंचायतों, नगर निकायों के ताबूतों में अंतिम कील ठोकने जैसा काम किया गया है। साथ ही ग्रामीण जनता को मामूली निर्माण के लिए ज़िला मुख्यालय में बने दफ़्तरों के चक्कर लगाने को मज़बूर किया जा रहा है। यहाँ आयोजित जनसभा में वक्ताओं का कहना था कि इन क़दमों से सरकार की पहाड़ विरोधी नीतियों का विशेष रूप से पर्दाफाश हो गया है। इन सब मुद्दों के मद्देनज़र अधिकांश वक्ता बगड़ के मंच से इसपर एकमत दिखाई पड़े कि सत्ता से बाहर की सभी शक्तियां अगर एकजुट होकर लड़ें तभी उत्तराखंड बनने के वास्तविक उद्देश्यों को हासिल कर पाना संभव होगा। सभा के समापन पर  विरोध स्वरूप ज़िला प्राधिकरण गठन के गजट नोटिफिकेशन की कापियों को यहाँ सरयू की धारा में बहाया गया। 

इस दौरान एक ग़ौरतलब प्रगति यह रही कि, जैसा मैंने आलेख के आरम्भ में इशारा किया है, यहाँ उपस्थित लगभग 20 राजनीतिक एक्टिविस्ट जिनमें लोकवाहिनी के अध्यक्ष राजीव लोचन साह, पूरन तिवारी, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पी सी तिवारी, यू के डी के पूर्व अध्यक्ष और विधायक पुष्पेश त्रिपाठी, वाम दलों के विभिन्न संगठनों से पुरुषोत्तम शर्मा, इन्द्रेश मैखुरी, गिरजा पाठक, जयदीप सकलानी,मालती हालदर, जनसँवाद यात्रा के संयोजक चारु तिवारी, गैरसैण संघर्ष समिति के प्रदीप सती, अमर उजाला/हिन्दुस्तान के पूर्व संपादक दिनेश जुयाल, योगेश भट्ट, त्रिलोचन भट्ट, ईश्वर जोशी, सतीश धौलाखंडी, गोविंद भंडारी, रमेश कृषक आदि एक बैठक के लिए जुट गए। ज़िला बार सभाकक्ष में हुई इस बैठक में उन राजनीतिक परिस्थितियों और कमियों पर, जिनके चलते पिछले 18 वर्षों की राजनीतिक यात्रा में इन ताकतों को हाशिये पर धकेल दिया गया, एक स्वतःस्फूर्त मंथन की प्रक्रिया देखने को मिली। चुनावी राजनीति में मिली अपनी अफलताओं का व्यवहारिक विश्लेषण और भविष्य की रणनीति का निर्धारण जैसे सामायिक नुक्ते इस संवाद के केंद्र में रहे। चूंकि बैठक का कोई एजेंडा और समय पहले से तय नहीं था इसलिए एक निष्कर्ष पर तुरंत पहुंचना शायद संभव नहीं था। तब भी राज्य के ज्वलंत सवालों पर मिलजुल कर संघर्ष करने को सब सहमत थे, वहीं इस बात की कमी महसूस की गई कि बिना राजनीतिक शक्ति हासिल किये तय उद्देश्यों को पाना या इन सभी सवालों के सही उत्तर ढूंढना मुश्किल होता जा रहा है। चुनाव जीतने के लिये ज़रूरी होगा कि चुनावी राजनीति में एक रणनीति के तहत भागीदारी की जाए। इसके लिए विभिन्न दलों समूहों को चाहे एक बड़ी छतरी के नीचे एक मोर्चे के रूप में क्यों न खड़े होना पड़े। इस संदर्भ में वहां उपस्थित वाम दलों और क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों की प्रतिक्रिया भी सकारात्मक दिखी।
 
हालाँकि इससे पहले भी जन सरोकारों पर इन ताक़तों ने एकजुट होकर संघर्ष  किया है किन्तु चुनावी गठजोड़ बनाने में कभी सफलता नहीं मिली।  बात समझी जा सकती है कि 2022 के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए किसी गठबंधन के सूत्रपात की राह 2019 के लोकसभा घमासान से ज़रूर निकल सकती है। गठबंधनों के दौर में सफल होने के लिए उत्तराखंड की इन क्षेत्रीय ताक़तों को इतना राजनीतिक कौशल अर्जित करना होगा कि एक गठबंधन का अहम खिलाड़ी बन कर उभर सकें। राजनीतिक दौड़ में पीछे छूट गए क्षत्रपों को अभी मोदी के विरुद्ध हो रही लामबंदी का फ़ायदा उठाना चाहिए। जैसी सुगबुगाहट भी है, यह समय उस क्षेत्रीय मोर्चे के गठन का है जो आगामी लोकसभा चुनावों में एक दो सीटों पर किसी गठबंधन का हिस्सा बनकर पूरी ताक़त से चुनाव लड़े/लड़ाए और तब 2022 में सूबे के चुनावों में तीसरे मोर्चे के रूप में हाथ आजमाए।

उमेश तिवारी 'विश्वास'
मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार
4-बी, अम्बिका विहार, नैनीताल रोड
हल्द्वानी-263139

फ़ो- 9412419909

Friday, November 16, 2018

Pancheshwar Dam


पंचेश्वर डाम निधरौ हमार मुनव में

ये सौदा है घाटे का
जो डूब रहा वो सोना है। 

गोलज्यू की जागर है इसमें,
कबूतरी के गीत, 
झूसीया का इसमें हुड़का 
रीठागाड़ी का संगीत।
ये सौदा है घाटे का, जो डूब रहा वो सोना है।। 

मिलती थी जो आपस में, 
नदी, नदी में डूब रही है,
रामगंगा, महाकाली में, 
पनार, सरयू ढूंढ रही है।
ये सौदा है घाटे का, जो डूब रहा वो सोना है।।

धेई, चाख सब डूब रहे हैं,
समेऊ, बनफ्शा डूब रहा है, 
आकाश की गेठी,
पाताल का तैड़ डूब रहा है, 
बांज, बुरांश - काफल, किल्मोड़ा, 
पुराना जंगल डूब रहा है।।
ये सौदा है घाटे का, जो डूब रहा वो सोना है।। 

दमवाँ, नगाड़ा, निशाण,
धूणी और तिथाण,
ऐड़ी बाराही के थान,
हिमालय का रामेश्वर डूब रहा है।।

ये सौदा है घाटे का, 
जो डूब रहा वो सोना है,
मारी गई है मति तुम्हारी,
ये उत्तराखंड का रोना है। 
ये सौदा है घाटे का, जो डूब रहा वो सोना है।।
                            उमेश तिवारी 'विश्वास'
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Saturday, November 3, 2018

परिया का नज़रिया

पेश है सफ़ाई पर - 'परिया का नज़रिया'-
उमेश तिवारी ‘विश्वास’

सफ़ाई और स्वास्थय संबंधी कुछ जागरूकतायें अपने परिया के अन्दर  बचपन से ही भरी पड़ी हैं. उनमें से एक है; पेशाब को कभी रोक कर नहीं रखना चाहिए. जब उसे कचहरी में आ पड़ी, तो उसने सी.जे.ऍम. कोर्ट की दीवार की आड़ में निपटा दी. चलती बस में ‘आने’ पर उसने बस रुकवाई और कल्वट की पिछाड़ी बैठ गया. नैनीताल की ठंडी सड़क पर वह ताल की ओर पीठ करके फ़ारिग हो लिया. उसे बताया गया था कि वक़्त पर पेशाब करना और थूकना बहुत ज़रूरी है. इन क्रियाओं को अपनी इच्छा और ज़रुरत के हिसाब से जितनी बार चाहो किया जा सकता है. सावधानी सिर्फ इतनी कि आपको कोई देखता ना हो. धरती माता की सोखन शक्ति पर परिया को इतना भरोसा था जितना सोनियां को मनमोहन पर भी नहीं रहा होगा. परिया समझता था कि वो ‘बहुत कुछ’ करता है पर गंदगी नहीं. आज तक उसे गंदगी करते किसी ने देखा भी नहीं था, देखा होता तो बताता.

परिया ने सीखा था कि जलती बीड़ी को जंगल में फेंकने से आग का खतरा रहता है. जलती ठुड्डी को उसने आज तक, जंगल तो क्या डामर की रोड पर भी नहीं फेंका था. उसने ठुड्डी को दीवारों, फर्नीचर से लेकर फर्श पर भी कुचल कर बुझाया था. इन सभी स्थलों पर बीड़ी बुझाने से बने निशानों के प्रति परिया उतना ही लापरवाह था जितना भाजपा सरकार नेता प्रतिपक्ष के मुद्दे पर है. उसका मन जानता था कि बीड़ी से उसके अपने कल्जे के अलावा आज तक कहीं भी आग नहीं लगी.

थूकने से पहले परिया अपनी एक हथेली को जैहिन्द की मुद्रा में होंठों के कोने पर लगा लेता है. दायीं ओर थूकने के लिए जैहिन्द मुद्रा होंठों के बायें कोने और बायीं ओर थूकने के लिए दायीं ओर बना लेता है. थूक नज़दीक न गिरे इसलिए वो ज़ोर की आवाज़ के साथ इस क्रिया को करता है, जैसे कोई ट्रैक्टर खरखराकर चालू हो और फिर बंद हो जाये.

परिया के जीवन में एक दिन अचानक रेल का टॉयलेट आया. अब तक की भोगी उमर में उसके द्वारा लूटी गयी ये सर्वाधिक टिप-टॉप सुविधा थी. चारों तरफ से बंद, चिटकनी लगा दरवाज़ा, पानी का नल और जाने क्या देखने को लगा एक शीशा भी. छेद से पटरियों के बीच दीखते पत्थर, जिनसे परिया को भरोसा बना रहा कि वो धरती पर ही बैठा हुआ है. रेल में हुआ तो क्या? पर फिर भी उसे सज नहीं आई, धार से उत्पन बुलबुले देखने और मिट्टी के गुर्राने का स्वर सुनने का कुछ और ही मज़ा है.

आज परिया तथाकथित गंदगी करने जा ही रहा था कि उसके कान में आवाज़ पड़ी, “न करूँगा, न करने दूंगा”. ये आवाज़ उसी रेडियो से आ रही थी जो बरसों से उसे ‘बीड़ी जलाइले जिगर से पिया’ सुनाता रहा है. उसे यकीन नहीं हुआ कि फरमाइशी प्रोग्राम सुनाने वाले रेडियो का इस्तेमाल उस पर नज़र रखने के लिए भी किया जा सकता है. प्रधान मंत्री की आवाज़ इतनी रौबीली थी कि उसके हाथ जहाँ थे, वहीँ जाम हो गए. पाँव जैसे धरती में गड़ गए. पैजामा गीला जैसा हो गया. आवाज़ अब भी आ रही थी, “मैं पिछले तीन साल से आपसे मन की बात कर रहा हूँ...” परिया का मन हुआ डायरेक्ट पूछ ले, “तन की बात कब करोगे ? साल में एक बार भी कर लेते तो काफ़ी रहता.” लेकिन ये कैसे संभव था, परिया का न तो रेडियो पर कंट्रोल था और न ही आवाज़ रुपी प्रधानमंत्री पर. वह समझ नहीं पा रहा था कि करे तो क्या? इसी उधेड़बुन में उसने बीड़ी जला ली. ज़ोर का सुट्टा मारा तो खांसी आ गई. थूकने को हुआ, तो लगा रेडियो घूर रहा है. अब परिया का सर चकरा रहा था. वो ख़ुद से आज़ादी के मायने पूछ रहा था. काफ़ी दूर तक चलने के बाद भी उसे थूकने लायक जगह नहीं दिखी या हर जगह इसी लायक थी. रेडियो की आवाज़ लगातार उसके कानों में पड़ रही थी, “आप स्वयं सफ़ाई रखें और इससे भी ज़रूरी है कि दूसरों से भी सफ़ाई रखने का आग्रह करें....” परिया पर इस वाक्य का जादुई असर हुआ. उसने महसूस किया कि ख़ुद करने से आसान है, दूसरों से करने का आग्रह करना. परिया ने पच्च से रोड पर थूका और दो कदम चलने के बाद बीड़ी की ठुड्डी को ज़मीन पर पटक कर इतनी जोर से रगड़ा कि चप्पल का फीता निकल आया. टूटी चप्पल को हाथ में उठा कर उसने जयकारा सा लगाया, “न करूँगा न करने दूंगा”. 

Friday, May 11, 2018

Biplaw da.

माननीय मुख्यमंत्री त्रिपुरा श्री बिप्लव दा !

कसम से हमें भी आप जैसा एक चाहिए। उत्तराखंड में कम तो नहीं हैं। अभी तक तीन बट्टा चार दर्ज़न हो चुके हैं पर तुम्हारी प्रतिभा देखकर, मैं तो हतप्रभ हूँ। हमारे मुख्यमंत्रियों ने भी खास मौकों पर जब मुंह खोला तब-तब कमाल किया है। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड जैसे नवोदित राज्य में विकास की अपार संभावनाएं हैं। और तब ; रात में दिन में, सुबह में शाम में, गली-गली, अंधेरे-उजाले में, किलमोड़े के झाड़ में, दारू-बजरी की आड़ में, मैदान में, पहाड़ में नेताओं का विकास होता गया। फिर संभावनाओं की भी औलादें  पैदा हुईं। बालक बालिका और उभयलिंगी भी। उनको विकास पुरुषों का नाम-खानदान मिला। इस तरह अपनी वल्दियत धारण किये वह अपार होती चली गईं। अब 18 बरस बाद उन्होंने कहा है कि हमें अपनी जमीन नहीं बेचनी चाहिए। जमीन होगी तो रोजगार पैदा होगा, संभावना पैदा होगी। रोजगार पैदा हो गया तो पलायन को झक मारकर घर में ही रुकना होगा। फिर भी हमें एक विकल्प चाहिए.... हमें एक अदद विप्लव चाहिए।

उन्होंने कहा सपनों का उत्तराखंड बनाएंगे। फिर सबने सपने देखे। ब्लैक एंड वाइट सपने, दिन में काले, रात में सफेद सपने, रंगीन सपने, आंखें बंद करके और आंखें खोलकर देखे गए सपने। सपनों में देवभूमि आई, देवता आए, बद्री-केदार, गोलू, महासू, कल बिष्ट आए। गीत-संगीत, जागर दिखाई दिए, नदी-तालाब, गाड़-गधेरे, गडेरी, गंधरैणी, यारसागंबू, कुटकी, अतीस दिखाई दिए। तब उन्होंने कहा कि हमारे पास सब चीजों का विशाल भंडार है। इसके लिए एक पंचेश्वर बांध बनना जरूरी है। जिसमें खराब सपने डूब जाएंगे और शेष के अनुरूप उत्तराखंड बन जाएगा।... फिर भी हमें अपना एक विप्लव चाहिए।

उत्तराखंड सरकार पर बारम्बार ये तोहमत लगता है कि  हमारी नौकरशाही बेलगाम है। अब क्या बताऊँ बिप्लव दा सच तो ये है कि सरकार से जुड़े सिविल सर्वेंट में कोई भी सिविल इंजीनियर नहीं है। इस तथ्य के मद्देनजर आपके दिशा निर्देश से बल्कि मात्र आपकी चरणधूलि पाकर अपनी नौकरशाही की बुद्धि ठिकाने आ सकती है। .... इसलिये हमें अपना ओन बिप्लव चाहिए।

आपकी इंटरनेट थ्योरी की बलाएं लेते हुए, उत्तराखंड को वापस उसकी जगह पहुंचाने के लिए, आपका सहयोग एक ऐसे मुद्दे पर चाहता हूँ जो 2019 में आपकी पार्टी के लिए देश भर में काम आएगा।
दद्दा, हमारे सूबे में बहुत से लोगों को, जिसमें कुछ आपकी पार्टी वाले नादान भी शामिल हैं, इस बात पर विश्वास हो चला है कि आदमी मंगल ग्रह पर पहुँच गया है। जबकि आप जानते ही हैं कि ऊपर वाले ने उनको बेवकूफ बनाया। इसमें आपकी जानकारी के लिये एक प्रामाणिक बात जोड़ दूँ कि अमावस की एक अंधेरी रात, जब दैव इच्छा से मंगलवार भी पड़ा था, रात्रि के तीसरे पहर में तथाकथित मंगलयान जैसी कोई चीज नैनीताल के चीनापीक में उतरी थी। इस मुद्दे पर यहाँ आज भी बहस जारी है। आवश्यकता इस बात की है कि कोई मुख्यमंत्री इस बात को जोर देकर कह दे कि मंगल भगवान के आंगन में जीते-जागते मनुष्य का पांव पड़े तो वो अपने ठेले समेत भसम हो जाएगा। बस टी वी साक्षात्कार के माध्यम से यह बात बताने की जरूरत है।

मतिभ्रम के कारण विपक्ष को केंद्र में 2019 में अपनी सरकार बनती दिखाई दे रही है। फिलहाल आप थोड़े दिन के लिए उत्तराखंड के प्रभारी बन कर त्रिवेंद्र जी का मार्गदर्शन कर डालें, इन मुंगेरी लालों के मंसूबे धरे के धरे रह जाएंगे और .. आप समझ रहे हैं ना त्रिपुरा और त्रिवेंद्र !

आपका प्रशंसक

टिल्लू उत्तराखंडी।

Umesh Tiwari 'Vishwas'

Saturday, February 28, 2015

किसान स्मारक


                                      आवश्यकता किसान स्मारक की
 उमेश तिवारी ‘विश्वास’
आपको याद होगा कि एक किसान नेता और पूर्व प्रधानमंत्री को उनके बेटे वगैरा भूल गए थे. भला हो वकीलों का जिन्होंने इसी दौरान घर बदलने को मज़बूर बेटे को  पितृ पक्ष की याद दिलाई. सच्ची, अगर पिता का कोई स्मारक आदि होता तो क्या उन्हें कोई बेटा भूल सकता था ? बेटे और समर्थकों ने साल में एक-आध बार, चंदे-वन्दे के लिए ही सही, स्मृति स्थल पर पत्रकार वार्ता अवश्य की होती.
जब पुत्र को देश की तरक्की में पिता के योगदान की भी सुध आयी तो उसने अपने उसी देश की सरकार से अपने लिए कोई मंत्रालय-वंत्रालय मांगने के बजाय दिल्ली की एक सड़क के किनारे सरकारी क्वार्टर मांगा. जिसके आंगन में बस एक चबूतरा सा बन जाए जहाँ सरसों के तेल का दिया जलता रहे. वहीँ एक कोने में पिता की फोटो लगाये बेटा भी पड़ा रहेगा. किसानी से टच बनाये रखने के लिए स्मारक के बगल की फुलवारी के साथ हलधर किसान की मूर्ति लगवा लेगा.
कई कृषि प्रधान देशों के नेता जब दिल्ली आते हैं तो भारत के किसानों के प्रति अपना श्रद्धा भाव बताने को, भारी ट्रैफिक में, राजघाट के निकट किसान घाट जाना पड़ता है. अगर औरंगज़ेब रोड पर स्मारक बन जाये तो वो लुटियन ज़ोन में ही झटपट फूल-पत्ती चढ़ा आयेंगे. टी वी वालों के लिए भी नज़दीक पड़ेगा. इतना टाइम किसके पास होता है आजकल.
किसान स्मारक के अधिकांश समर्थक, बगल में यू पी के रहने वाले हैं. वो कई बार दिल्ली आते हैं. स्मारक नहीं होने की वजह से गाजियाबाद सीमा पर मत्था टेक कर वापस हो लेते हैं. इससे दिल्ली के किसान संस्कारों में कोई वृद्धि नहीं हो पाती. यही कारण है कि महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक के किसान भी दिल्ली नहीं आते और अपने इस जन्म में किसान नेताओं को श्रद्धासुमन अर्पित किये बिना ही कर्ज़गति को प्राप्त हो रहे हैं. यह दिवंगत नेता के सपनों के प्रति अन्याय है.
यूपी के किसान अपने खाली समय में दिल्ली का पानी बंद करके किसान स्मारक बनाने की मांग कर रहे हैं. उत्तराखंड में अगर किसान होते तो वो कम से कम उत्तराखंड तो बंद कर ही देते. दक्षिण के किसान समझ रहे हैं कि पानी-बिजली को शायद उत्तर भारत में स्मारक कहते होंगे, लेकिन वो दिल्ली का बंद करें, तो क्या?
आज की लोकप्रिय सरकार सबके लिए अच्छे दिनों का वादा करके आयी है. अपने वादे पर ईमानदारी से काम करते हुए सरकार को व्यापारी नेता, कर्मचारी नेता, दरबारी नेता, भिखारी नेता आदि बन सकने की संभावनाओं से भरे व्यक्तित्वों के लिए स्मारक स्थलों का आरक्षण कर देना चाहिए. इसका एक फायदा ये होगा कि नयी कैटेगरी के किसी नेता जैसे; ‘झपटमार मंडल अध्यक्ष’ और उनके बच्चों को पहले से पता रहेगा कि उनका स्मारक नहीं बन सकता. वो अपने समर्थकों के साथ किसी शोध संस्थान वंस्थान के लिए ट्राई कर सकेंगे. दूसरा फायदा ये रहेगा कि आरक्षित श्रेणी स्मारकों के लाभार्थी ग्रुप, आपसी गुटबाजी के शिकार हो जाएंगे जिससे मुख्य राजनीतिक दलों को उनके अन्दर घुस कर तोड़-फोड़ करने का अवसर मिलेगा.  
असल में ‘स्मारक समस्या’ सिर्फ किसानों तक सीमित नहीं है. हमारे देश में कई किसम के प्राणी, समुदाय, संगठन आदि हैं, जिनका स्मारक बनाना बहुत जरुरी है. वो खुद अपने स्मारक की मांग नहीं कर सकते इसलिए पत्रकार टाइप लोगों का फ़र्ज़ है कि वो ऐसे मुद्दे उठाते रहें जिससे ‘स्मारक जागरूकता’ बनी रहे. हो सकता है इस चक्कर में कोई ‘पत्रकारिता घाट’ हाथ लग जाय.




Saturday, February 21, 2015

सबै भूमि गोपाल की

          सबै भूमि गोपाल की  
                           उमेश तिवारी ‘विश्वास’

यार प्रजा कभी-कभी तुम्हारी नादानी पर मुझे बड़ा गुस्सा आता है....! तुमने कभी सोचा जो गैस-बिजली, तेल-पानी तुमको मिलती है उसका थोड़ा मंहगा होने का क्या कारण है ? प्यारी, चुनावों में खर्चा करके जो तुम्हारी लोकप्रिय सरकार बनवाते हैं उनका भी कुछ हक बनता है. सिर्फ़ इसीलिए सरकार तुमको सीधे-सीधे अंतर्राष्ट्रीय दामों में पेट्रोल, डीजल या गैस मुहैय्या नहीं करवा सकती. कोयले की खानें काम दाम में इसलिए दी जाती हैं ताकि तुमको बिजली सस्ती मिले. प्राकृतिक/अप्राकृतिक राष्ट्रीय संसाधनों के सुविचारित आबंटन को तुम लूट कह देती हो. यकीन रखो सारे उद्योग तुम्हारे हैं, उद्योगपति तुम्हारे साले हैं.

तुम भूल जाती हो कि जिसमें तुम जी रही हो या मर रही हो, वो तुम्हारा ही तंत्र है. प्रजातंत्र, जनतंत्र, लोकतंत्र. तुम इस कृषि प्रधान देश की प्रजा हो, जन हो. ये खेती चौपट होने का रोना बंद करो. लोकतंत्र की पैदाइश तुम्हारे ही खेत में हो रही है और अच्छी हो रही है. मोदी से लेकर विक्की तक सारे नेता तुम्हारे खेत की मुडेर पर दंड पेल रहे हैं, हर छोटी से छोटी प्रोग्रेस पर कड़ी नज़र बनाये हुए हैं. तुम कहोगी ये कैसी उलटबांसी है ? खेत तुम्हारा और निगरानी कर रहे हैं वो, जिनके पास करने को भतेरे काम पड़े हैं ? प्यारी ! वो अपनी प्राथमिकताओं के अनुरूप काम करते हैं. खेत तुम्हारा ज़रूर है, पर इसमें बीज बो दिए हैं उन्होंने. भविष्य के सभासदों, मेयरों, विधायकों, सांसदों की पौध रोप दी है राजनीतिक दलों ने. तुम्हारा होते हुए भी ये अब देश का खेत है. तुम्हारा फ़र्ज़ बनता है कि अपना तन, मन और धन लगा कर इस खेत के बिरवों-बेलों को बड़ा करो. उन्हें हृष्ट-पुष्ट, लम्बा-चौड़ा और चरित्रवान बनाओ. इसीमें तुम्हारी और तुम्हारे खेत/देश की भलाई है.
ऐसा भी नहीं है कि तुम्हारे खेत में स्थापित जनतंत्र की इस नर्सरी में विभिन्न प्रजाति के बीज बो कर वो सारी ज़िम्मेदारी तुम्हारे ऊपर लाद देंगे. वो कुछ अतिरिक्त सहयोग भी प्रदान करेंगे. वो तुम्हारे खेत में भिषोंण (बिजूखा) के रूप में प्रशासन की उपस्थिति सुनिश्चित करेंगे. जिसके भय से कमअक्ल प्रवासी/परप्रांतीय आतातायी पक्षी खेतों से दूर रहेंगे. सत्तासीन दल कुछ विशेष बेलों को खरपतवार के रूप में वर्गीकृत कर, उनका विस्तार रोकने को सी बी आइ नामके कीटनाशक का उपयोग करेंगे. समय-समय पर वो अपने क्षत्रपों के सहयोग से स्वयं तुम्हारे खेत की निराई-गुड़ाई करेंगे. जो पौधे अपेक्षित ग्रोथ न दिखा रहे हों या तुम्हारी शराफत के संस्कारों के प्रभाव में दूसरों की खाद चूस पाने का गुण विकसित न कर पायें और मरियल रह जाएँ, उनको कम्पोस्ट के गड्डे में डाल देंगे. ये कालांतर में पूरी तरह सड़-गल कर चुनावी खाद का निर्माण करेंगे.
तैयार होने पर कुछ पौधे देहरादून, दिल्ली आदि जैसी राजधानियों की उर्वरा क्यारियों में शिफ्ट कर दिए जायेंगे. वहां विभिन्न क्षेत्रों/प्रान्तों से चुनकर लाये गए पौधों के संपर्क में आएंगे. उनसे टक्कर लेते हुए आगे निकल कर अपने प्रान्त का नाम रोशन करेंगे. ख़ूब फूलेंगे-फलेंगे.
फूल स्वाभाविक रूप से ज़मीन के ऊपर खिलेंगे और दसों दिशाओं में अपनी गंध फैलायेंगे. शुद्ध आचार, पवित्र व्यवहार की हवा में लहराते हुए दिलफेंक मक्खियों-भंवरों को अपनी-अपनी ओर खींचेंगे. उनके साथ मिलकर तुम्हारे विकास की खातिर पी पी पी मोड पर प्रोजेक्ट बनायेंगे. कुछ फूलों को इस मुकाम पर तुम्हारे सर का ताज बनाने के लिए चुन लिया जायेगा.
जहाँ तक तुम्हारे खेतों से उगकर इस श्रेष्ठ गति को प्राप्त पेड़-पौधों पर लगने वाले फलों का प्रश्न है, फल उनकी जड़ों में आलू-मूली की तरह फलते हैं. जिससे वो बुरी नज़रों, जिसमें तुम्हारी भी शामिल है, से बचे रहते हैं. भूमिगत होने से इनको राष्ट्रीय संसाधन की श्रेणी में रखा जाता है. मोटे तौर पर तुम्हारी तसल्ली के लिए, जितना मोटा पौधा उतने भारी फल.
जब इनकी खुदाई/तुड़ाई का अवसर आता है तो जिस विधि से स्पेक्ट्रम और कोयले की नीलामी की जाती है उसी पारदर्शिता के साथ ‘फल खाओ पट्टे’ दिए जाते हैं. मौका लगने पर ‘पहले आओ, पहले पाओ’ की नीति और गठबंधन की दशा में मिलबांट कर उपभोग की नीति अपना ली जाती है. यह सब तुम्हारे और भारत के राष्ट्रपति के बिहाफ़ पर ही किया जाता है. वो तुमसे ज़्यादा पढ़े-लिखे हैं. सरकारी नीति में कुछ ऊँच-नीच होता तो वो इनको खुदा घर तक नहीं छोड़ते.  

खेत के मालिकाना हक को लेकर भी ज्यादा चूं-चपड़ करने का तुमको अब कोई फायदा नहीं होने वाला. भू अधिग्रहण का नया फार्मूला ‘सबै भूमि गोपाल की’ पर आधारित है. तुम गोपाल को नहीं जानते और तुमको ये भी पता नहीं कि सुदामा, बलदाऊ वगैरा से उसके क्या संबंध हैं. वो तुम्हारे खेत के गर्भ में तेल या गैस होने की संभावना जता देगा. फिर बैठे रहना मुआवज़े का चेक ले के. ये गोपाल जो भी हो, तुम्हारा कतई नहीं है.

(उमेश तिवारी ‘विश्वास’- उत्तराखंड में मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं. संपर्क- 09412419909)


               

Thursday, February 19, 2015

सिर्फ कूड़ा बुहारने से स्वच्छ नहीं बनेगा भारत.

सिर्फ  कूड़ा बुहारने से स्वच्छ नहीं बनेगा भारत  
उमेश तिवारी ‘विश्वास’
साल 2014 की एक बड़ी उपलब्धि ये है कि देशवासी झाड़ू उठा कर स्वच्छ भारत बनाने निकल पड़े हैं. ठीक भी है, कूड़ा सभी की ज़िम्मेदारी है. अमीर-ग़रीब, महिला-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, सब अपने स्तर पर कचरा तैयार करते हैं. वो चाहें, तब भी कूड़े का उत्पादन बंद नहीं कर सकते. इसी तरह व्यक्तिगत स्तर पर सफ़ाई बरतना भी एक आदत है. ये आदत अगर व्यक्तित्व में शामिल है तो अपने घर के अलावा सार्वजनिक स्थलों पर भी आपके गंदगी करने के चांसेस कम हैं. दुर्भाग्य से आज भी बड़ी संख्या में हमारे भाई-बहन अपनी देहरी से बाहर के भारत को अंग्रेज़ों का समझते हैं. इस दृष्टिकोण के मद्देनज़र, स्वच्छता की मुहिम में ‘सबका’ शामिल होना बहुत आवश्यक है. सरकार इसे अपने कार्यक्रम की तरह चलाना चाहे तो रस्म अदायगी या फोटो खिंचवाई के बजाय पल्स पोलियो अभियान सरीखी संजीदगी की ज़रूरत होगी.
कूड़े को बुहारने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उसे ठिकाने लगाना. जिन गाँव/कस्बों/ शहरों को हम साफ़ देखना चाहते हैं, वहां आम तौर पर स्वागत ही कूड़े के पहाड़ों या खुले में किये गए मल-मूत्र के ढेरों से होता है. हालाँकि डंपिंग स्थलों की परेशानी अमेरिका जैसे देश भी झेलते हैं. कचरे के विशाल लैंडफिल उनकी बड़ी समस्या हैं, लेकिन उनकी  परेशानी का बड़ा सबब वो प्लास्टिक है जिसे रिसाइकल करने की तकनीक दुनियाँ में किसी देश के पास नहीं है. हमारा कचरा उससे कहीं ज़्यादा खतरनाक इसलिए है कि इसमें वो सब भी मिला हुआ है जिसके बारे में हमें थोड़ा बहुत या बिलकुल ज्ञान नहीं है.
कूड़े को उसके अंजाम तक पहुँचाने के लिए श्रोत पर उसकी छंटाई पहली शर्त है. फैक्ट्रियों, अस्पतालों और विकीरण वाले कूड़े को ख़तरनाक मानते हुए यदि  उसका यथोचित/विशिष्ट प्रबंधन कर लिया जाये तो शेष कूड़ा, गीले और सूखे कचरे के दो संवर्गों में श्रोत पर ही अलग-अलग उठाया जा सकता है. इसके बाद की प्रक्रिया ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की सामान्य तकनीकों से पूरी की जा सकती है. इस स्तर पर  रीसाइक्लिंग प्लांट बनाने और कूड़ा ढुलाई आदि की व्यवस्था को कुशलता से चलाने की ज़िम्मेदारी स्थानीय निकायों की होगी. इसके लिए दरिद्रता झेल रहे निकायों को आवश्यक सरकारी मदद देनी होगी.
हम साफ़-सुथरे कस्बों/शहरों का सपना देख रहे हैं तो हमें ये भी जान लेना चाहिए कि उन्हें गन्दा और भद्दा बनाने में सिर्फ उस कचरे की भूमिका नहीं है जिसे हम झाड़ू या फावड़े-बेलचे से साफ़ कर सकते हैं. अपने कस्बे के आकाश पर निगाह डालें. रौशनी मानो बिजली, टेलीफ़ोन, केबल टी वी के तारों से छन कर हम तक आती है. कुछ घरों को बिजली देनी हो तो नज़दीकी खम्भे से कितनी ही दूरी तक तार खींच दिए जाते हैं. नयी ज़मीन और आसमान पर भद्दे रेखाचित्र बना दिए जाते हैं. सेलफोनों के प्रकोप से लैंडलाइन फ़ोन अपनी उपादेयता लगभग खो चुके हैं लेकिन उनके खम्भों और तारों को हम विरासतन ढोये जा रहे हैं. केबल टी वी के तार अमरबेल की तरह हर ऊँची चीज़ को जकड़ लेते हैं. डी टी एच की उलटी छतरियां, छतों, दीवारों, मुडेरों पर आड़ी-तिरछी ठोक दी जाती हैं. पानी के निकास को बनी नालियों में पीने के पानी के नल ठूँस  दिए जाते हैं. सीवर लाइन डालने के लिए सड़कों को खोद कर अक्सर महीनों तक छोड़ दिया जाता है.  
दुकानें लपककर, गजों सड़क घेर लेती हैं. फिर उनमें सजे सामान को धूप-पानी से बचाने को तार्पुलिन से लेकर रंग-बिरंगी प्लास्टिक शीट्स की झांपें/छतें जुड़ जाती हैं. चोरों, उठाईगीरों के डर से दुकानदारों का निकट ही नित्यकर्म करना अपरिहार्य हो जाता है. उनको चाय, बीड़ी, गुटके की अबाधित पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गली के कोने को और संकरा  करते हुए एक खोखा उग आता है. ग्राहक भी इन सुविधाओं का भरपूर उपयोग करते हुए बची खुची भूमि पर थूकते हैं. जहाँ पेशाबघर दुर्लभ हों, वहां पीकदान विलासिता ही कही जाएगी. इतना ही नहीं, वास्तुकार के नक़्शे पर बनी वैध ईमारत का स्वामी, टीन की दुछत्ती बनवाने का लोभ संवरण नहीं कर पाता. बड़ी दुकान का मालिक अपनी दुकान के कोने पर गुटखा-सिगरेट या पीको-फॉल का खोमचा बनवा देता है. मंदिर के बगल में एक और छोटा मंदिर, वहां पानी का नल, स्कूटर कम साइकिल कम जूता स्टैंड और बाबाजी की कुटिया तक निर्मित हो जाती है. किसी भी नाप का फ्लेक्स बोर्ड कहीं भी जड़ दिया जाता है, चिमनियों पर पुते विज्ञापनों के बीच से लैंप पोस्ट की रोशनी बाहर आने को संघर्ष करती है...... जाने-अनजाने, अज्ञानतावश, स्वार्थवश अपनी जगहों के प्रति बरती गयी यही संवेदनहीनता स्वच्छ भारत की कल्पना पर ग्रहण की तरह है.            
झाड़ू की जद में आने वाले कूड़े का कुशल प्रबंधन नि:संदेह हमारे शहरों को काफ़ी हद तक साफ़ बना सकता है, लोगों को ओने-कोने की सड़ांध से मुक्ति दिला सकता है लेकिन जब तक अतिक्रमणों पर सख्ती से रोक और गंदगी फ़ैलाने पर जुर्माने का प्रावधान नहीं होगा, साफ़-सुथरे शहरों के देश का सपना हक़ीकत में बदलते कई पीढ़ियाँ लगा देगा.
(उमेश तिवारी ‘विश्वास’- उत्तराखंड में मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार और पर्यटन विशेषज्ञ हैं. लम्बे समय से स्वच्छता मिशन से जुड़े हैं. संपर्क- 09412419909)