Saturday, February 2, 2019

मोदी विरोधी लामबंदी बदल देगी उत्तराखंड के चुनावी समीकरण

मोदी विरोधी लामबंदी बदल  देगी उत्तराखंड के चुनावी समीकरण
मोदी विरोध की एक धारा जो इस समय पूरे भारतवर्ष में अपना प्रभाव दिखा रही है उत्तराखंड भी उससे अछूता नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि उत्तराखंड के चुनावी समीकरणों पर इसका असर बड़े बदलाव के संकेत दे रहा है। हो सकता है इस बार उस एकता का सपना साकार हो जाये जो पिछले अठारह वर्षों में नहीं बन पायी। कुछ समय से उत्तराखंड के जल, जंगल, ज़मीनों से जुड़ी नीतियों के प्रति असंतोष के चलते जो तीव्र छटपटाहट देखी जा रही थी उसके फलस्वरूप ग़ैरभाजपा-ग़ैरकांग्रेस ताक़तों का यह संवाद अवश्यम्भावी लग रहा था। 

मालूम हो उत्तराखंड में पिछले अक्टूबर की 10 से 25 तारीख़ के मध्य एक जनसंवाद यात्रा का आयोजन किया गया जो कुमाऊँ में पंचेश्वर, चम्पावत से आरंभ होकर उत्तरकाशी, गढ़वाल में समाप्त हुई। जैसा कि नाम से ज़ाहिर है इस यात्रा में व्यापक जनसंपर्क के ज़रिये गैरसैण राजधानी को लेकर जनमत बनाने का प्रयास किया गया। साथ ही विवादास्पद पंचेश्वर बांध पर एक बड़े आंदोलन की आवश्यकता को भी यात्रा द्वारा रेखांकित करने का प्रयास किया गया। इन दो बड़े मुद्दों के अलावा राज्य बनने से अब तक 3000 प्राइमरी स्कूलों के बंद होने और उत्तराखंड सरकार के हालिया फ़ैसलों जिनमें 40 हाईस्कूल-इंटर कॉलेजों और गरीबों के लिए बनाए गए राजीव गांधी नवोदय विद्यालयों को बंद करने घोषणा समेत सरकारी अस्पतालों को निजी हाथों में देने के निर्णय केेे विरोध में समूचे यात्रा रूट पर एक बहस छेड़ी गई। यात्रा में भागीदार क्षत्रपों के हवाले से समाचार पत्रों में छपी ख़बरों पर यक़ीन करें तो आपसी एकजुटता बनाने की इच्छा व्यक्त की जा रही थी। अब इसे अमली जामा पहनाने को एक अवसर और एक आह्वान की ज़रूरत थी।

बागेश्वर का ऐतिहासिक उतरैणी मेला समूचे कूर्मांचल की चेतना का प्रतीक रहा है। 1921 में यहाँ मकर संक्रांति को अंग्रेजों द्वारा लादी गयी कुली-बेगार प्रथा का प्रतिकार करते हुए इसके रिकार्ड के रजिस्टरों को फाड़ कर सरयू-गोमती के संगम पर बहा दिया गया था। तब से आज तक बागेश्वर में सरयू के बगड़ से कई आंदोलनों के बिगुल फूँके गए हैं। इसी ऐतिहासिक स्थल पर इस बार ये मीटिंग करने का निर्णय लिया गया।
15 जनवरी की इस मीटिंग में उत्तराखंड में कार्य कर रही राज्य आन्दोलन की भागीदार लगभग सभी क्षेत्रीय ताकतें और वाम दलों से जुड़े अधिकांश संगठनों के प्रतिनिधि उपस्थित थे। उपरोक्त जनसँवाद यात्रा के दौरान निकल कर आये मुद्दों और दिसंबर में उत्तराखंड सरकार द्वारा प्रदेश की जमीनों पर लिए गए एक निर्णय के विरोध में अधिकांश जनप्रतिनिधि बहुत उद्वेलित नज़र आये। उनका मानना था कि भूमि ख़रीद की सीमा और भू-उपयोग संबंधी प्रावधानों को इस हद तक डाइल्यूट कर दिया गया है कि समूचे प्रदेश की ज़मीनों पर भू-माफ़िया को काबिज़ होने से कोई नहीं रोक सकता। लीडरों का कहना था कि सूबे की सरकार ने इन्वेस्टर्स समिट की आड़ में भू उपयोग बदलने से सम्बंधित धारा 143 और औद्योगिक प्रयोजन के लिए भूमि सीमा समाप्त करते हुए धारा 154 में नये उपबंध जोड़कर पहाड़ की बची-खुची कृषि भूमि को समाप्त करने की राह आसान कर दी है। इन ज़मीनों पर निर्माण के लिए नक़्शे पास करने को ज़िला विकास प्राधिकरणों को थोपना अपरिहार्य हो गया है। हद  यह है कि सरकार और तथाकथित निवेशकों के बीच सरकारी अधिकारियों को लायजन ऑफीसर के रूप में नियुक्त कर दिया है। विकास प्राधिकरणों की स्थापना से ग्राम पंचायतों, नगर निकायों के ताबूतों में अंतिम कील ठोकने जैसा काम किया गया है। साथ ही ग्रामीण जनता को मामूली निर्माण के लिए ज़िला मुख्यालय में बने दफ़्तरों के चक्कर लगाने को मज़बूर किया जा रहा है। यहाँ आयोजित जनसभा में वक्ताओं का कहना था कि इन क़दमों से सरकार की पहाड़ विरोधी नीतियों का विशेष रूप से पर्दाफाश हो गया है। इन सब मुद्दों के मद्देनज़र अधिकांश वक्ता बगड़ के मंच से इसपर एकमत दिखाई पड़े कि सत्ता से बाहर की सभी शक्तियां अगर एकजुट होकर लड़ें तभी उत्तराखंड बनने के वास्तविक उद्देश्यों को हासिल कर पाना संभव होगा। सभा के समापन पर  विरोध स्वरूप ज़िला प्राधिकरण गठन के गजट नोटिफिकेशन की कापियों को यहाँ सरयू की धारा में बहाया गया। 

इस दौरान एक ग़ौरतलब प्रगति यह रही कि, जैसा मैंने आलेख के आरम्भ में इशारा किया है, यहाँ उपस्थित लगभग 20 राजनीतिक एक्टिविस्ट जिनमें लोकवाहिनी के अध्यक्ष राजीव लोचन साह, पूरन तिवारी, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पी सी तिवारी, यू के डी के पूर्व अध्यक्ष और विधायक पुष्पेश त्रिपाठी, वाम दलों के विभिन्न संगठनों से पुरुषोत्तम शर्मा, इन्द्रेश मैखुरी, गिरजा पाठक, जयदीप सकलानी,मालती हालदर, जनसँवाद यात्रा के संयोजक चारु तिवारी, गैरसैण संघर्ष समिति के प्रदीप सती, अमर उजाला/हिन्दुस्तान के पूर्व संपादक दिनेश जुयाल, योगेश भट्ट, त्रिलोचन भट्ट, ईश्वर जोशी, सतीश धौलाखंडी, गोविंद भंडारी, रमेश कृषक आदि एक बैठक के लिए जुट गए। ज़िला बार सभाकक्ष में हुई इस बैठक में उन राजनीतिक परिस्थितियों और कमियों पर, जिनके चलते पिछले 18 वर्षों की राजनीतिक यात्रा में इन ताकतों को हाशिये पर धकेल दिया गया, एक स्वतःस्फूर्त मंथन की प्रक्रिया देखने को मिली। चुनावी राजनीति में मिली अपनी अफलताओं का व्यवहारिक विश्लेषण और भविष्य की रणनीति का निर्धारण जैसे सामायिक नुक्ते इस संवाद के केंद्र में रहे। चूंकि बैठक का कोई एजेंडा और समय पहले से तय नहीं था इसलिए एक निष्कर्ष पर तुरंत पहुंचना शायद संभव नहीं था। तब भी राज्य के ज्वलंत सवालों पर मिलजुल कर संघर्ष करने को सब सहमत थे, वहीं इस बात की कमी महसूस की गई कि बिना राजनीतिक शक्ति हासिल किये तय उद्देश्यों को पाना या इन सभी सवालों के सही उत्तर ढूंढना मुश्किल होता जा रहा है। चुनाव जीतने के लिये ज़रूरी होगा कि चुनावी राजनीति में एक रणनीति के तहत भागीदारी की जाए। इसके लिए विभिन्न दलों समूहों को चाहे एक बड़ी छतरी के नीचे एक मोर्चे के रूप में क्यों न खड़े होना पड़े। इस संदर्भ में वहां उपस्थित वाम दलों और क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधियों की प्रतिक्रिया भी सकारात्मक दिखी।
 
हालाँकि इससे पहले भी जन सरोकारों पर इन ताक़तों ने एकजुट होकर संघर्ष  किया है किन्तु चुनावी गठजोड़ बनाने में कभी सफलता नहीं मिली।  बात समझी जा सकती है कि 2022 के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए किसी गठबंधन के सूत्रपात की राह 2019 के लोकसभा घमासान से ज़रूर निकल सकती है। गठबंधनों के दौर में सफल होने के लिए उत्तराखंड की इन क्षेत्रीय ताक़तों को इतना राजनीतिक कौशल अर्जित करना होगा कि एक गठबंधन का अहम खिलाड़ी बन कर उभर सकें। राजनीतिक दौड़ में पीछे छूट गए क्षत्रपों को अभी मोदी के विरुद्ध हो रही लामबंदी का फ़ायदा उठाना चाहिए। जैसी सुगबुगाहट भी है, यह समय उस क्षेत्रीय मोर्चे के गठन का है जो आगामी लोकसभा चुनावों में एक दो सीटों पर किसी गठबंधन का हिस्सा बनकर पूरी ताक़त से चुनाव लड़े/लड़ाए और तब 2022 में सूबे के चुनावों में तीसरे मोर्चे के रूप में हाथ आजमाए।

उमेश तिवारी 'विश्वास'
मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार
4-बी, अम्बिका विहार, नैनीताल रोड
हल्द्वानी-263139

फ़ो- 9412419909

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