Thursday, February 19, 2015

सिर्फ कूड़ा बुहारने से स्वच्छ नहीं बनेगा भारत.

सिर्फ  कूड़ा बुहारने से स्वच्छ नहीं बनेगा भारत  
उमेश तिवारी ‘विश्वास’
साल 2014 की एक बड़ी उपलब्धि ये है कि देशवासी झाड़ू उठा कर स्वच्छ भारत बनाने निकल पड़े हैं. ठीक भी है, कूड़ा सभी की ज़िम्मेदारी है. अमीर-ग़रीब, महिला-पुरुष, बच्चे-बूढ़े, सब अपने स्तर पर कचरा तैयार करते हैं. वो चाहें, तब भी कूड़े का उत्पादन बंद नहीं कर सकते. इसी तरह व्यक्तिगत स्तर पर सफ़ाई बरतना भी एक आदत है. ये आदत अगर व्यक्तित्व में शामिल है तो अपने घर के अलावा सार्वजनिक स्थलों पर भी आपके गंदगी करने के चांसेस कम हैं. दुर्भाग्य से आज भी बड़ी संख्या में हमारे भाई-बहन अपनी देहरी से बाहर के भारत को अंग्रेज़ों का समझते हैं. इस दृष्टिकोण के मद्देनज़र, स्वच्छता की मुहिम में ‘सबका’ शामिल होना बहुत आवश्यक है. सरकार इसे अपने कार्यक्रम की तरह चलाना चाहे तो रस्म अदायगी या फोटो खिंचवाई के बजाय पल्स पोलियो अभियान सरीखी संजीदगी की ज़रूरत होगी.
कूड़े को बुहारने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है उसे ठिकाने लगाना. जिन गाँव/कस्बों/ शहरों को हम साफ़ देखना चाहते हैं, वहां आम तौर पर स्वागत ही कूड़े के पहाड़ों या खुले में किये गए मल-मूत्र के ढेरों से होता है. हालाँकि डंपिंग स्थलों की परेशानी अमेरिका जैसे देश भी झेलते हैं. कचरे के विशाल लैंडफिल उनकी बड़ी समस्या हैं, लेकिन उनकी  परेशानी का बड़ा सबब वो प्लास्टिक है जिसे रिसाइकल करने की तकनीक दुनियाँ में किसी देश के पास नहीं है. हमारा कचरा उससे कहीं ज़्यादा खतरनाक इसलिए है कि इसमें वो सब भी मिला हुआ है जिसके बारे में हमें थोड़ा बहुत या बिलकुल ज्ञान नहीं है.
कूड़े को उसके अंजाम तक पहुँचाने के लिए श्रोत पर उसकी छंटाई पहली शर्त है. फैक्ट्रियों, अस्पतालों और विकीरण वाले कूड़े को ख़तरनाक मानते हुए यदि  उसका यथोचित/विशिष्ट प्रबंधन कर लिया जाये तो शेष कूड़ा, गीले और सूखे कचरे के दो संवर्गों में श्रोत पर ही अलग-अलग उठाया जा सकता है. इसके बाद की प्रक्रिया ठोस अपशिष्ट प्रबंधन की सामान्य तकनीकों से पूरी की जा सकती है. इस स्तर पर  रीसाइक्लिंग प्लांट बनाने और कूड़ा ढुलाई आदि की व्यवस्था को कुशलता से चलाने की ज़िम्मेदारी स्थानीय निकायों की होगी. इसके लिए दरिद्रता झेल रहे निकायों को आवश्यक सरकारी मदद देनी होगी.
हम साफ़-सुथरे कस्बों/शहरों का सपना देख रहे हैं तो हमें ये भी जान लेना चाहिए कि उन्हें गन्दा और भद्दा बनाने में सिर्फ उस कचरे की भूमिका नहीं है जिसे हम झाड़ू या फावड़े-बेलचे से साफ़ कर सकते हैं. अपने कस्बे के आकाश पर निगाह डालें. रौशनी मानो बिजली, टेलीफ़ोन, केबल टी वी के तारों से छन कर हम तक आती है. कुछ घरों को बिजली देनी हो तो नज़दीकी खम्भे से कितनी ही दूरी तक तार खींच दिए जाते हैं. नयी ज़मीन और आसमान पर भद्दे रेखाचित्र बना दिए जाते हैं. सेलफोनों के प्रकोप से लैंडलाइन फ़ोन अपनी उपादेयता लगभग खो चुके हैं लेकिन उनके खम्भों और तारों को हम विरासतन ढोये जा रहे हैं. केबल टी वी के तार अमरबेल की तरह हर ऊँची चीज़ को जकड़ लेते हैं. डी टी एच की उलटी छतरियां, छतों, दीवारों, मुडेरों पर आड़ी-तिरछी ठोक दी जाती हैं. पानी के निकास को बनी नालियों में पीने के पानी के नल ठूँस  दिए जाते हैं. सीवर लाइन डालने के लिए सड़कों को खोद कर अक्सर महीनों तक छोड़ दिया जाता है.  
दुकानें लपककर, गजों सड़क घेर लेती हैं. फिर उनमें सजे सामान को धूप-पानी से बचाने को तार्पुलिन से लेकर रंग-बिरंगी प्लास्टिक शीट्स की झांपें/छतें जुड़ जाती हैं. चोरों, उठाईगीरों के डर से दुकानदारों का निकट ही नित्यकर्म करना अपरिहार्य हो जाता है. उनको चाय, बीड़ी, गुटके की अबाधित पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए गली के कोने को और संकरा  करते हुए एक खोखा उग आता है. ग्राहक भी इन सुविधाओं का भरपूर उपयोग करते हुए बची खुची भूमि पर थूकते हैं. जहाँ पेशाबघर दुर्लभ हों, वहां पीकदान विलासिता ही कही जाएगी. इतना ही नहीं, वास्तुकार के नक़्शे पर बनी वैध ईमारत का स्वामी, टीन की दुछत्ती बनवाने का लोभ संवरण नहीं कर पाता. बड़ी दुकान का मालिक अपनी दुकान के कोने पर गुटखा-सिगरेट या पीको-फॉल का खोमचा बनवा देता है. मंदिर के बगल में एक और छोटा मंदिर, वहां पानी का नल, स्कूटर कम साइकिल कम जूता स्टैंड और बाबाजी की कुटिया तक निर्मित हो जाती है. किसी भी नाप का फ्लेक्स बोर्ड कहीं भी जड़ दिया जाता है, चिमनियों पर पुते विज्ञापनों के बीच से लैंप पोस्ट की रोशनी बाहर आने को संघर्ष करती है...... जाने-अनजाने, अज्ञानतावश, स्वार्थवश अपनी जगहों के प्रति बरती गयी यही संवेदनहीनता स्वच्छ भारत की कल्पना पर ग्रहण की तरह है.            
झाड़ू की जद में आने वाले कूड़े का कुशल प्रबंधन नि:संदेह हमारे शहरों को काफ़ी हद तक साफ़ बना सकता है, लोगों को ओने-कोने की सड़ांध से मुक्ति दिला सकता है लेकिन जब तक अतिक्रमणों पर सख्ती से रोक और गंदगी फ़ैलाने पर जुर्माने का प्रावधान नहीं होगा, साफ़-सुथरे शहरों के देश का सपना हक़ीकत में बदलते कई पीढ़ियाँ लगा देगा.
(उमेश तिवारी ‘विश्वास’- उत्तराखंड में मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार और पर्यटन विशेषज्ञ हैं. लम्बे समय से स्वच्छता मिशन से जुड़े हैं. संपर्क- 09412419909)


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